Monday, October 1, 2007

२ अक्तूबर।


सत्य अहिंसा का जिसने दुनिया में अलख जगाया।
गुलामी की नींद से जिसने हिन्दोस्तान उठाया।
आओ स्मरण करें उनको उनकी जयन्ती पर,
जिनके कारण लाल किले पर अपना तिरंगा लहराया।।

कितना पावन दिन, है ये २ अक्तूबर।
हुए अवतरित देशभक्त एक, कहलाये जो लाल बहादुर।
नैया देश की जिसने कठिन समय में पार लगाई।
ऋण न चुका पायेंगे उनका, भारतवासी जन्म जन्मांतर।।

देश तो देशभक्तों से है, शहीद हो या हो नाबाद।
जिनकी शुभ करनी से, हम अब तक हैं आबाद।
करें प्रण मिलकर हमसब, कुरीतियों को मिटायेंगे।
हर तरह से सुदृड॰ भारत को भविष्य में ले जायेंगे।।

इक दीप जलता है कही


इस मतलबी संसार में।
सच झूठ की मंझधार में
मानव फंसा व्यापार में।
किन्तु
पथ उज्जवल है अन्धकार में
इक दीप जलता है कहीं।।
पैसे की कैसी ये लहर।
इंसानियत सडी दर बदर।
मकान हैं जो थे कभी घर
किन्तू
लौ हो गई अब प्रखर।
इक दीप जलता है कहीं।।

Sunday, September 16, 2007

दुआ


सावन में ज्यों खिलता मौसम।
हर क्षण आये बहती सरगम।।
दिव्य हो हर शब्द तुम्हारा।
फैले प्रभात सा उजियारा।।

सपने हों आशायें हों।
और हर चाहत हो पूरी।
जीवन उपवन ऎसे महके ।
जैसे महके कस्तूरी।।

Friday, August 24, 2007

दिशा


ये कदम उठें तो अच्छाई की ओर,
ये नजरें जमीं रहें लक्श्य के छोर।
अहित किसी का न करें कभी हम,
खिलती रहे जीवन में खुशी की भोर।।

हर समस्या से निपटें मिल के सदा,
जुडे रहें अपनी जडों से सदा।
यही उम्मीद करते हैं प्रभू से हम,
कृपा उनकी बनी रहे हम पर सर्वदा।।

Monday, July 30, 2007

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए


हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,

शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,

सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

- दुष्यन्त कुमार

तू ज़िन्दा है तू ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर

रचनाकार: शैलेन्द्र

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तू ज़िन्दा है तू ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर,

अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!




ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,

ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन,

सुबह औ' शाम के रंगे हुए गगन को चूमकर,

तू सुन ज़मीन गा रही है कब से झूम-झूमकर,

तू आ मेरा सिंगार कर, तू आ मुझे हसीन कर!

अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!


हमारे कारवां का मंज़िलों को इन्तज़ार है,

यह आंधियों की, बिजलियों की, पीठ पर सवार है,

तू आ क़दम मिला के चल, चलेंगे एक साथ हम,

मुसीबतों के सर कुचल, बढ़ेंगे एक साथ हम,

कभी तो होगी इस चमन पर भी बहार की नज़र!

अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!


टिके न टिक सकेंगे भूख रोग के स्वराज ये,

ज़मीं के पेट में पली अगन, पले हैं ज़लज़ले,

बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग़ ये,

न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इन्क़लाब ये,

गिरेंगे जुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर!

अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!

1950 में रचित..

Tuesday, July 24, 2007

जिन्दगी



इस अनजाने देश में
बेगाने परदेस में
जिन्दगी की कशमकश के चलते
हवाओं की लहरों पर सवार
जानी पहचानी सी कोई आवाज
सुनाई देती है जब
वो जहां पुराना छूट गया जो
याद आके फिर
आंखों में नमी सी भर देता है।
धडकन भारी कर देता है।।

"सुबह सवेरे"

सुबह सवेरे

सुबह सवेरे जहन में मेरे
उठा एक सवाल,
क्षण भर में जिसको मैनें
मन से दिया निकाल,
निरंतर फिर भी मेरे
मन को वो कुरेदता है।
कि शेखर तू

दूसरों के प्रति क्या सोचता है?

विवाद के स्थान पर,
इस भोतिक सामान पर,
कभी अभिमान कर।
अपनी गलती ले मान,
यही है महान,
आत्माओं की पहचहान।।
धर्म-जाति, रंग, लिंग की
सामाज में, जो ये दीवारें खडी हैं,
क्या, क्या ये सारी मानवता से बडी हैं?

जाने इसका क्या निष्कर्ष होगा,
पर किसी का इससे कोई उत्कर्ष होगा।
तुम ही हो,
तुम ही हो जो इन दीवारों को गिराकर,
सम्पूर्ण भेदभाव भुलाकर,
समाज का कल्याण करोगे।
दुनिया का नव निर्माण करोगे||
दुनिया का नव निर्माण करोगे||
........***
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दावानल

जीवन की अंधी दौङ के चलते,
एक अरसा हो गया मां के आंचल में सोये हुये।
रिश्तों में जंग लग गया है कुछ ऐसे,
कि मौसम बीत गये अपनों के संग मुस्कुराये हुये।
बस जीने के लिये जी रहे हैं अब तो,
वर्षों गुजर गये खुद से नजरें मिलाये हुये।
वक्त ठहर गया सा लगता है उनके बिन,
हम बेगाने न हो जायें उन्हें मन में बसाये हुये।
मुदत हो गयी कुछ गुनगुनाये हुये,
कि इक जमाना बीत गया, उन्हें याद आये हुये।
कि इक जमाना बीत गया, उन्हें याद आये हुये।।...

अकेला इक ख्वाब ..I Like it very Much (By Faiz)

इस अजनबी सी दुनिया में, अकेला इक ख्वाब हूँ.
सवालों से खफ़ा, चोट सा जवाब हूँ.

जो ना समझ सके, उनके लिये "कौन".
जो समझ चुके, उनके लिये किताब हूँ.

दुनिया कि नज़रों में, जाने क्युं चुभा सा.
सबसे नशीला और बदनाम शराब हूँ.

सर उठा के देखो, वो देख रहा है तुमको.
जिसको न देखा उसने, वो चमकता आफ़ताब हूँ.

आँखों से देखोगे, तो खुश मुझे पाओगे.
दिल से पूछोगे, तो दर्द का सैलाब हूँ.
लोग कहते हैं हुई थी बारिश उस रोज़,
उन्हें क्या पता ग़म-ए-हिज़्र में रोया था कोई।
यूँ साए देख कर खुश होते हैं सब ग़ाफ़िल,
उन्हें क्या पता कल धूप में सोया था कोई।

कतरा-कतरा कर के मुस्कुराते हैं सभी,
उन्हें क्या पता चश़्म-ए-तर का रोया था कोई।
मंज़िल-ए-आखिर को चलते हैं अब राहिल,
उन्हें क्या पता इन राहों पर खोया था कोई।

किसी के इतने पास न जा

किसी के इतने पास न जा
के दूर जाना खौफ़ बन जाये
एक कदम पीछे देखने पर
सीधा रास्ता भी खाई नज़र आये

किसी को इतना अपना न बना
कि उसे खोने का डर लगा रहे
इसी डर के बीच एक दिन ऐसा न आये
तु पल पल खुद को ही खोने लगे

किसी के इतने सपने न देख
के काली रात भी रन्गीली लगे
आन्ख खुले तो बर्दाश्त न हो
जब सपना टूट टूट कर बिखरने लगे

किसी को इतना प्यार न कर
के बैठे बैठे आन्ख नम हो जाये
उसे गर मिले एक दर्द
इधर जिन्दगी के दो पल कम हो जाये

किसी के बारे मे इतना न सोच
कि सोच का मतलब ही वो बन जाये
भीड के बीच भी
लगे तन्हाई से जकडे गये

किसी को इतना याद न कर
कि जहा देखो वोही नज़र आये
राह देख देख कर कही ऐसा न हो
जिन्दगी पीछे छूट जाये